• WRITER - ROBERT GREEN INGARSOAL TRANSLATOR - SOMPRAKASH/ अनुवाद - सोमप्रकाश SAHITYA UPKRAM- HINDI - PAGE 40
  • Writer - Subhash Chandra 

    लेखक - सुभाष चंद्र 

    | SAHITYA UPKRAM | HINDI| PAGE- 176 | 2012| 

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    विष्णु नागर जैसी समय की दस्तावेजी व्यंग्य पकड़ सचमुच दुर्लभ है!
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    क्रांति हौव्वा नहीं : भगत सिंह को दो तरह का हौव्वा बनाकर पेश किया जाता है। एक तो व्यावहारिकता का कि भगत सिंह पड़ोसी के घर ही अच्छा लगता है- अपने घर में उसका होना आज की परिस्थितियों में वांछित नहीं। दूसरा आदर्श का कि विचारों- कार्यशालाओं से भगत सिंह को नहीं अपनाया जा सकता- उसके लिए जेल और मृत्यु की कामना करने की जरूरत होती है। इन दोनों पूर्वाग्रहों के पीछे भगत सिंह की वह छवि काम कर रही होती है जो उनके दो बेहद प्रचलित प्रकरणों— सांडर्स-वध और एसेम्बली-बम धमाका - को एकांतिक रूप से देखने से बनी है। क्योंकि यही प्रकरण उनकी लोकप्रिय छवि का आधार भी बनाए जाते हैं, लिहाजा उपरोक्त पूर्वाग्रहों को सार्वजनिक रूप से मीन-मेख का सामना प्रायः नहीं करना पड़ता । पर भगत सिंह को पूर्वाग्रहों से नहीं, तर्क से जानना होगा - एकांतिक रूप से नहीं परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। वे क्रांतिकारी थे, आतंकवादी नहीं— तभी उन्होंने कभी भी सांडर्स- वध को ग्लोरिफाई नहीं किया और असेम्बली में बम फोड़ते समय यह सावधानी भी रखी कि किसी की जान न जाय। वे हाड़-मांस के ऐसे मनुष्य थे जिसके प्रेम, स्वप्न, जीवन, राजनीति, देश-प्रेम, गुलामी और धर्म जैसे विषयों पर बेहद लौकिक विचार थे। तभी उन्होंने मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के हर स्वरूप — साम्राज्यवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद, असमानता, भाषावाद, भेदभाव इत्यादि का पुरजोर विरोध किया। फांसी से एक दिन पूर्व साथियों को अंतिम पत्र में उन्होंने लिखा- 'स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। जब उन्होंने मृत्यु को चुना तब भी लौकिकता और तार्किकता के दम पर ही। अगर वे सिर पर कफन बांधे मृत्यु के आलिंगन को आतुर कोई अलौकिक सिरफिरे मात्र होते तो सांडर्स-वध के समय ही फांसी का वरण कर लेते। सांडर्स वध के बाद फरारी और असेम्बली बम कांड के बाद, जब वे भाग सकते थे, समर्पण उनकी अदम्य तार्किकता का ही परिचायक है। भगत सिंह से दोस्ती का मतलब उनकी इसी लौकिकता और तार्किकता को आत्मसात करना भी है। इन अर्थों में यह एक कठिन रास्ता है— न कि जेल, पुलिस, मौत जैसे संदर्भ में। क्या हम ईमानदारी, सच्चाई, साहस, भाईचारा, बराबरी और देश-प्रेम को अपने जीवन का अंग बनाना चाहते हैं? क्या हम शोषण के तमाम रूपों को पहचानने और फिर उनसे लोहा लेने की शुरूआत खुद से, अपने परिवार से, अपने परिवेश से कर सकते हैं? यदि हां, तो घर-घर में भगत सिंह होंगे ही जो शोषण के तमाम पारिवारिक, सामाजिक, जातीय, लैंगिक, राजनैतिक, साम्राज्यवादी एवं आर्थिक रूपों की पहचान करेंगे और उनसे लोहा लेंगे। जेल से भगत सिंह का कहा याद रखिए- 'क्रांतिकारी को निरर्थक आतंकवादी कार्रवाइयों और व्यक्तिगत आत्म- बलिदान के दुषित चक्र में न डाला जाय। सभी के लिए उत्साहवर्धक आदर्श, उद्देश्य के लिए मरना न होकर उद्देश्य के लिए जीना और वह भी लाभदायक तरीके से योग्य रूप में जीना — होना चाहिए।' -विकास नारायण राय
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